शाही ठाठ से निकली गणगौर की सवारी,200 वर्षों से हो रहा आयोजन

बिजौलियां(जगदीश सोनी)।
लोकपर्व गणगौर पर सुहागन स्त्रियों ने अखंड सुहाग व कुंवारी कन्याओं ने सुयोग्य वर की प्राप्ति के लिए व्रत रख कर गणगौर की पूजा की।वहीं रात्रि में गणगौर की शाही सवारी निकाली गई।गणगौर की सवारी की व्यवस्था ग्राम पंचायत द्वारा की गई।रावले से गाजे-बाजे के साथ शुरू हो कर सवारी मंदाकिनी महादेव मन्दिर पहुंची।वहां से मुख्य मार्गों से होते हुए पुनः रावले ले जाया गया।बिजौलियां नगर में गणगौंर की सवारी निकालनें की परम्परा करीब दौ सौ  साल पुरानी है।राजपरिवार के पास  गणगौर (पार्वती) और ईसर (शिव) की लकड़ी से बनी 250 वर्ष पुरानी आकर्षक प्रतिमाएं हैं।इनका राजस्थानी वेशभूषा में श्रृगांर करनें के बाद सवारी निकाली जाती है। रियासत काल से ही प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला तृतीया को निकलने वाली गणगौर की सवारी की परम्परा आज भी ग्राम पंचायत के सान्निध्य में अदम्य उत्साह और उमंग के साथ जारी है। रियासत काल में गणगौर की सवारी तीन दिन तक निकालने की परम्परा थी जों आज समयाभाव के कारण सिर्फ एक दिन ही निकाली जाती है।राजस्थान के पर्वोत्सवों में गणगौर पर्व का महत्वपूर्ण स्थान है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया तक 18 दिन तक सुहागन स्त्रियां अखंड सुहाग एवं कुमारी कन्याएं  सुयोग्य वर प्राप्ति के लिए व्रत रखकर गणगौर की पूजा करती हैं। होलिका दहन की भस्म  और तालाब की मिट्टी से ईसर (शिव) और गणगौर (पार्वती) की प्रतिमाएं बनाकर उन्हें वस्त्रालंकारों  से सुसज्जित कर प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक पूजा की जाती है। प्रतिदिन सायंकाल कन्याएं टोलियां बनाकर गीत गाते हुए उद्यानों से हरि दूर्वा, पुष्प और जल ला कर गणगौर की पूजा करती है।चैत्र शुक्ला तृतीया को प्रातः काल पूजा के बाद तालाब- सरोवर पर जाकर  नृत्य कर लोक गीत गाए जाते हैं और प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। राजस्थान के राजघरानों द्वारा भी ईसर और गणगौर की विशाल कास्ट प्रतिमाएं को वस्त्र आभूषण से सुसज्जित कर गाजे-बाजों के साथ शाही सवारी निकाली जाती है।बिजौलियां के साथ ही जयपुर, उदयपुर, जोधपुर ,कोटा, बूंदी और झालावाड़ में गणगौर की सवारी विशेष दर्शनीय होती है। गणगौर हिंदू स्त्रियों के सौभाग्य का विशेष त्यौहार होने के साथ वासंती पर्वों की समापन वेला का लोक पर्व भी है।